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साधु
पृथ्वी से विदा हो रही है
शांति
आसमान से रंग
जमीन से गंध
पेड़ों से वसंत के फूल
विदा हो रहे हैं
किसकी कुल्हाड़ी हमें हमारे कंधे
पर बैठकर काट रही है
हम हो रहे हैं धराशायी
किसके दुख से हम कर रहे हैं
विलाप
सोचो साधु
सोचो साधु
मनुष्यता खतरे में पड़ गई है
चिड़ियों के बसेरों के लिए नहीं
रह गए हैं पेड़
उनके घोंसले भद्रजनों के ड्राइंग रूम में
कलाकृतियों की तरह सजे हैं
बुरे लोग प्रतिष्ठित हैं
अच्छे लोग दुखी और संतप्त
साधु
कहाँ है बचावनहार
जिसके चमत्कारों से भरी पड़ी हैं
पोथियाँ
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